Sunday, June 30, 2013

एक ढोंगी से धोखा और उसका खात्मा !

नमस्कार दोस्तों,
ये घटना जो मैं आप लोगों को बताने जा रहा हूँ ये घटना 19 साल पहले की है। मेरे पिता जी का स्थानान्तरण दिल्ली में हुआ था। यहाँ आने के बाद मेरे पिता जी ने पूर्वी दिल्ली के वेलकम इलाके में एक मकान किराये पर ले लिया था। नयी जगह में जिंदगी सामान्य करने में थोडा वक़्त लगा मगर समय के साथ सब सामान्य हो गया।

उस समय वहां एक तांत्रिक बहुत जाना माना जाता था।जिसे लोग माली जी कहा करते थे। मोहल्ला छोटा होने की वजह से उसने कम समय में काफी नाम कमा लिया था। उस वक़्त लोगो में साक्षरता की कमी के कारण लोग डॉक्टर से पहले उसके पास ही जाना पसंद करते थे। लोग उसके पास अपनी परेशानी लेकर जाते थे और ठीक भी हो जाते थे। उसका धंधा काफी अच्छा चल रहा था। धीरे धीरे उसकी ख्याति पहुँचते हुए मेरी दादी की पास भी पहुंची। उन्होंने ने भी उसके द्वारा किये गए काम को देखने की इच्छा जताई। उस मोहल्ले में एक दिन पड़ोस में किसी औरत को किसी उपरी हवा की आमद हुई। वो अपने आपे में नहीं आ रही थी, और उस पर सवार जो भी साया था उसे शांत नहीं होने दे रहा था। वो बस अपने बाल को खोल कर खेले जा रही थी। पड़ोसियों का मेला लगा हुआ था घर पर सब बस माली जी के आने का इंतज़ार कर रहे थे, फिर उस औरत के घर का एक आदमी अपने साथ माली जी लेके आ गया। माली जी ने कुछदिएँ जलाये तंत्र मंत्र किया और वो ठीक हो गयी। उसके बदले में माली जी ने उनसे कुछ रुपए और एक शराब की बोतल ले ली।

खैर अपने घर के किसी सदस्य की बिगड़ी हालत ठीक हो जाये तो कुछ पैसे और एक बोतल का क्या मोल?

मेरी दादी ने भी ये सब देखा उन्हें भी विश्वास हो गया के हाँ ये आदमी उपरी हवा का इलाज कर सकता है।

फिर एसा सिलसिला चला करता था अक्सर कभी किसी के घर में कोई परेशानी होती तो कभी किसी और के घर में। कोई डॉक्टर से ठीक होता तो कोई बिना माली जी की कृपा से ठीक नहीं होता था। माली जी की अच्छी कट रही थी।

एक दिन घूम घुमा कर परेशानी मेरे घर में भी आ गयी। मैं बहुत छोटा था, मुझे अचानक से उल्टियाँ आने लगी और मैंने दूध पीना भी छोड़ दिया। मेरे दादा जी और और मेरे पिता जी उस वक़्त दफ्तर में थे, मेरी दादी और मेरी मम्मी काफी परेशान थीं। नये शहर में किसी डॉक्टर को वो जानती नहीं थी, फिर एक पडोसी औरत से दादी ने किसी डॉक्टर का पता पूछा तो उस औरत ने डॉक्टर से पहले माली जी के पास चलने की सलाह दी। लोगो को अक्सर मोहल्ले में परेशानी हो जाती थी हो सकता है मैं भी किसी चपेट में आ गया हूँ, ऐसी दलीलें सुन कर मेरी दादी माली जी के पास चलने को तैयार हो गयी|

माली अपने घर में बैठा कुछ पूजा पाठ कर रहा था। उसने पहले मुझे देखा कुछ दियें जलाये लाल फूल मंगवा कर कुछ क्रिया की और अपना मंत्र वगेरह पढ़े।

फिर दादी से पूछा "आप बच्चे को कहीं बहार लेके बैठी थी कल शाम के वक़्त ?"

"हाँ " दादी ने जवाब दिया।

"जहाँ आप बैठी थी वहां से पूर्व दिशा की और किसी ने क्रिया करके अपनी चीज़ वापस करी थी और ये बच्चा बीच में पड़ गया। इसलिए इसे ये परेशानी हो रही है।" माली ने अपना सामान वहां से हटाते हुए कहा।

"फिर ये कैसे ठीक होगा? कोई इलाज़ है क्या इसका ?" दादी ने परेशान होकर माली से पूछा।

"ये चीज़ थोड़ी जिद्दी है ये बिना भोग लिए नहीं जाएगी, आप एक काम करो एक बोतल शराब और एक बकरे की कलेजी का थान मंगवा लो। कल तक तुम्हारा बच्चा बिलकुल ठीक हो जायेगा।" माली ने दादी को समाधान के तौर पर ये बात बोली।


"ठीक है हम तो जानते नहीं हैं, मेरा छोटा बेटा आपको ये चीज़ दे जायेगा।" दादी ने माली से कहा और फिर वहां से वापस अपने घर आ गयीं।

दादी ने घर आकर मेरे चाचा जी को कुछ पैसे दिए और एक शराब की बोतल और एक बकरे की कलेजी का थान माली के घर पंहुचा दिया।

मेरी तबियत अभी भी ठीक नहीं था। मम्मी ने जब इस बारे में दादी से पूछा तो उन्होंने कहा के "किसी तरह आज रात कट जाये सुबह तक ठीक हो जायेगा एस बोल है माली जी ने।" और मेरे पिता जी से इस बात को करने को दादी ने मना कर दिया।

उसकी वजह ये थी के पिता जी इन सब बातो पर ज़रा भी विश्वास नहीं करते थे दादा जी तो थोडा बहुत कर भी लेते थे। इसलिए सभी को सख्त हिदायत दी गयी के ये बात पिता जी के सामने न आये। खैर, शाम हुयी और पिता जी घर आये उन्होंने मुझे बीमार देख कर, मुझे उठाया और डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर ने कुछ दवाईयां दी और एक इंजेक्शन लगा दिया, जिससे में सो गया और फिर सुबह तक सोता ही रहा।

सुबह उठा तो मैं ठीक था। अब दादी इसे माली का चमत्कार समझ रही थी और पिता जी डॉक्टर की दवा का असर। मोहल्ले के औरतो में अब मेरी दादी भी उस समूह में शामिल हो गयी थी जो माली पर विशवास करती थीं। उस दिन के बाद से मेरे घर में अजीब ही हो गया कभी मैं बीमार पड़ जाऊ तो कभी मेरा भाई। दादी दिन के हिसाब से माली के घर भोग भिजवा देती और हम बिना दवा के ही ठीक हो जाते। कुछ दिनों में माली का व्यवहार मेरे दादा जी से भी हो गया और माली का घर आना जाना भी शुरू हो गया। मेरे पिता जी अभी भी इस बात से अनजान थे। माली जब भी आता दादा जी उसे अपना मित्र बता कर पिता जी से भी अभिवादन वगेरा करवा देते मगर बताया कभी नहीं के ये आदमी क्या करता है।

एक दिन की बात है मेरी मम्मी को थोडा चक्कर सा आ गया खाना बनाते वक़्त और वो वहीँ बेहोश हो गयीं। जब मम्मी को होश आया तो उन्होंने बताया के शायद गर्मी ज्यादा लग रही थी इसलिए थोडा चक्कर आ गया। मम्मी को ये बात सामान्य लगी क्योकि उन्होंने सुबह से कुछ खाया भी नहीं था और काम काज में लगी हुयी थी। मगर दादी ने इसे कुछ उपरी बला समझा और माली से इस बारे में बात करने की ठान ली।

ये बात उन्होंने दादा जी को बताई, दादा जी ने भी सोचा शायद कोई बात हो। क्योकि दोनों में से किसी को नहीं पता था की मम्मी ने सुबह से कुछ नहीं खाया था। उन्हें लगा के अचानक इस तरह बेहोशी आना कोई मामूली बात नहीं है। फिर दादा दादी ने मिलकर ये बात माली से पूछने की ठान ली और माली को बुलवा लिया। माली भी झट चला आया आखिर एक आवाज़ में उसे भोग जो भिजवा दिया जाता था।

खैर माली आया और दादी ने उसे बात बता दी, माली ने कुछ देर सोचा और हाथ में कुछ लांग लेकर कुछ करने लगा जैसे लांग को लोंग को लोंग से गिन रहा हो। कुछ देर बाद उसने बताया की मम्मी के ऊपर किसी देवी की छाया है, और वो सवार होकर खेलना चाहती हैं।

दादी ने कहा के "वो तो अभी बहुत छोटी है अभी से कैसे कोई देवी उसपर आ सकती हैं ?"

"माता जी ये तो देवी की महिमा है न जाने कब किस पर दयाल हो जाएँ, अगर उन्हें रोका गया तो शायद वो आपके परिवार को कष्ट देना शुरू कर दें। " माली ने दादी की बात का उत्तर इस तर्क के साथ डराते हुए दिया।

अब दादा दादी के पास कोई और चारा न बचा उन्होंने माली के कहे अनुसार पूजा करवाने का मन बना लिया। लेकिन अगले दिन रविवार था और पिता जी उपस्थिति में ये मुश्किल ही था। इसलिए पूजा सोमवार को रखी गयी। दादी को भी यही लगा के शायद इसलिए बच्चे बार बार बीमार हो जाते हैं क्योकि देवी आना चाहती हैं। पूजा में इस्तेमाल होने वाले सामान का बन्दोंबस्त दादा जी ने कर दिया।

माली जी का आगमन हुआ उन्होंने अपना पूजा पाठ का सारा सामान सजा कर पूरा माहोल तैयार कर लिया था। फिर दादी ने मम्मी को बुलाया। ना चाहते हुए भी मम्मी को जाना पड़ा आखिर सास ससुर की बात कोई बहु कैसे टाल सकती है! फिर माली ने कुछ दिए जलाये और लाल फूल और कोयले की आग में कुछ लोहबान और घी गुड़ डाल कर कुछ मंत्र पढने शुरू किये और दादा दादी को भी बोल के मन ही मन माता का आवाहन करो सो दादा दादी करने लगे।

कुछ देर बाद मम्मी पर कोई सवारी आई और जय जय गूंजने लगी। काफी प्रचंडता के साथ मम्मी पर उस सवारी का असर था खेलते खेलते हाथो की चूड़ियाँ टूट कर हाथो में कई जगह लगी गयीं और खून निकलने लगा, दोनों हाथ लहुलुहान हो गए। इसी प्रचंडता देख कर दादा दादी पेट के बल लेट गए और श्रधा से प्रचंडता की जगह सोम्य रूप की प्रार्थना करने लगे। फिर माली ने कुछ मंत्र बुदबुदाते हुए लोटे में रखे पानी को हाथ में लिए और मम्मी के ऊपर फेक दिया। इससे खेलना रुक गया और मम्मी एक दम से पीछे गिर गयीं। कुछ देर बाद मम्मी को होश आया तो दादी ने मम्मी को उठाया और अन्दर ले गयीं और हाथ में दवा वगेरह लगा दी फिर सारी बात बता दी के क्या क्या हुआ था क्योकि मम्मी को तो तब होश ही नहीं था।

इधर माली ने दादा जी से कहा के "अब तो आपको घबराने की कोई बात नहीं हैं। अब तो देवी स्वयं आ गयी हैं आप लोगो की रक्षा के लिए।"
दादा जी ने अनमने मिजाज से इस बात को स्वीकार किया और माली को विदा कर दिया। दादा दादी इस बात को लेकर परेशान थे की अगर इसी तरह हर बार सवारी आई तो बहु को बहुत कष्ट होगा, हमारे परिवार में तो कोई कुल देवी भी नहीं तो फिर ये सवारी कैसे आ गयी? शाम को जब पिता जी घर आये तो उन्होंने मम्मी के हाथो में चोट के निशान देखे और फिर दादी ने सारी बात पिता जी को बता दी। पिता जी काफी नाराज़ हुए की ये कौन सी मुसीबत हाथ लग गयी, माली के विषय में तो ये कहा की "वो अगर दुबारा घर में आया तो उसकी टाँगे हाथ में दे दूंगा।"

उस दिन के बाद से घर में अलग ही माहोल हो गया। सोमवार को मम्मी पर सवारी आने लगी और शांत करने के लिय माली को बुलाया जाता और माली की अच्छी खासी दावत का इंतज़ाम हो जाता, मम्मी को जो चोट लगे वो अलग। मम्मी इन सब बातो से बहुत ज्यादा उब गयी थी, जिसे कहा जा सकता है के पीड़ित हो गयीं थी। काफी परेशान हो जाने पर एक दिन मम्मी ने सारी बात मेरे सबसे बड़े मामा जी को चिट्ठी में लिख कर बता दी। क्योकि उस ज़माने में फ़ोन बहुत कम हुआ करते थे। जवाब में मामा जी ने आने का दिन निश्चय करके आने की सूचना दी।

एक हफ्ते बाद मामा जी दिल्ली आये उनके साथ में एक व्यक्ति और थे साधारण सा दिखने वाले अपने साथ हाथ में एक छोटा सा थैला लेके वो मामा जी से साथ हमारे घर आये। स्वागत पानी होने के बाद अपनी सारी बात और सारी विडंबना दादी ने मामा जी को बता दी। और मामा जी भी ये जताए बिना के उन्हें ये सब बात पता है चुप चाप सुनते रहे। फिर उन्होंने अपने साथ आये उस व्यक्ति से दादी का परिचय करवाया।

"ये हमारे एक दूर के चाचा जी हैं मन्नी लाल, यहाँ अपने रिश्तेदारों से मिलने आये हैं। ये भी कुछ जानकारी रखते हैं अगर आप आज्ञा दें तो ये शायद कुछ बता सकते हैं के ये सब कैसे हुआ।" मामा जी ने दादी से कहा।

दादी ने दादा जी पूछ कर इस बात की स्वीकृति दे दी। फिर थोड़ी देर कुछ विचारने के बाद मन्नी लाल चाचा ने कहा के "माता जी, माली जी को बुला लीजिये, तो फिर सारी बात आराम से की जाए।"

दादी ने मेरे चाचा को भेज कर माली को बुलवा लिया। सर्दी का वक़्त था घर के बहार चारपाई पर बैठ कर मामा जी और मन्नी चाचा बैठ कर चाय पी रहे थे और धूप आनंद ले रहे थे के माली का आगमन हुआ। दादी ने मामा जी लोग का परिचय करवाया। थोड़ी हाल खैरियत की बात के बाद मामा जी ने माली से पूछा "अपने ही पूजा करके मेरी बहन पर देवी की सवारी करवाई है न?"

"हाँ पूजा तो मैंने ही की थी मगर देवी खुद आना चाहती थीं।" माली से जवाब दिया।

"कौन सी देवी हैं वो ?" मन्नी लाल चाचा ने सवाल किया।

"ये तो आप खुद ही पूछ लीजिये कोई आपके परिवार की होंगी।" माली ने दादा जी तरफ देख कर कहा।

दादा जी ने जवाब दिया "हमारे परिवार में तो कोई कुल देवी नहीं हैं।"

"तो फिर कोई और होंगी बचपन में जिनका दर्शन हुआ होगा।" माली ने कहा। यहाँ उसका तात्पर्य चेचक से था उसे भी देवी का दर्शन कहा जाता है और ये भी कहा जाता है के जिस देवी का दर्शन विकट रूप से होता है उनकी कृपा भी उसी तरह होती हैं। और कभी कभी उस देवी की सवारी भी आने लगती है। यही बात माली भी समझाने की कोशिश कर रहा था।

"इसे तो बचपन में भी कभी कोई दर्शन नहीं हुआ।" मेरे मामा जी ने जवाब दिया।

"तो फिर देवी से ही पूछ लेते हैं न, मैं मनाऊंगा तो वो अभी खेलने लगेंगी। " माली ने खुद को फंसता देख इस तरह डराने की कोशिश की।

"ठीक है चलिए, ऐसा ही किया जाए। आखिर वो देवी हैं कौन सी जो ऐसे परेशान कर रहीं हैं।" मन्नी चाचा ने माली से कहा।

"ठीक है आईये, लेकीन डरना मत" माली ने होशियार किया।

मन्नी चाचा ने हस्ते हुए कहा "अगर डर भी गए तो आप हैं ना।"

इतना कह कर माली उठ गया और अन्दर जाते जाते बोल "तो फिर आईये न!"

मन्नी चाचा ने कहा के "आप चलिए जब सवारी आ जाये तो हम भी अन्दर आ जायेंगे।"

माली फिर अन्दर गया लाल फूल मंगवाए दीये मंगवाए और तैयार हो कर बैठ गया। दादी के कहने पर मम्मी भी आ कर बैठ गयी और मामा जी भी मगर मन्नी चाचा बाहर ही बैठे रहे। माली ने मंत्र पढने शुरू किये और दीया जलाने लगा, मगर दिए की बाती ने लो नहीं पकड़ी। एक बाद बाद माचिस की तिल्लियां जला जला कर माली ने तीन माचिसे खाली कर दी मगर दीया नहीं जला। अब माली के पसीने छूटने लगे सर्दी में भी उसकी ये हालत हो रही थी मगर उसका कोई मंत्र कोई जोर नहीं चल रहा था माली की समझ से बाहर था की ये क्या हो रहा है। माली सब कुछ रख कर बैठ कर कुछ मंत्र जाप कर रहा था के मन्नी चाचा अन्दर आये।

"क्या हुआ देवी नहीं आयीं?" मन्नी चाचा ने पूछा।

"पता नहीं क्या हुआ, शायद नाराज़ हो गयी हैं।" माली ने कहा।

"अब तुम्हारे बुलाने से देवी तो क्या एक आत्मा भी नहीं आ सकती बच्चे।" मन्नी चाचा ने कहा।

"क क्या मतलब ?" माली ने लडखडाती जुबान से पूछा।

"एक फूल और कपूर पर चलने वाली देवी को सिद्ध क्या कर लिया, तुम ओझा बनकर घुमने लगे। वो सब तो फिर भी ठीक था मगर तुम जो यहाँ करने आये थे वो तो बहुत नीच कर्म है।" मन्नी चाचा ने जवाब दिया।

माली हक्का बक्का होकर केवल मन्नी चाचा की बात सुन रहा था। तभी मामा जी ने मन्नी चाचा से पूछा "कैसा नीच कर्म चाचा?"

"इस ****** की औलाद ने तुम्हारी बहन पर अपनी देवी का वास करवाया, क्योकि ये इस घर की सबसे बड़ी बहु हैं जब ये अपनी सास के बाद अपने कुल देवता की पूजा करती तो ये सारी पूजा इसकी देवी लेतीं। और इस देवी को नया कुल मिलता तो इसके ऊपर ज्यादा मेहरबान हो जाती और ये नीच इस कुल के गुरु के रूप में पूजा जाता। और अगर इस बात से इस कुल के देवता नाराज़ हो जाते तो ये कुल यहीं रुक जाता। ये कमीना एक गुरु बन्ने के चक्कर में इस परिवार की पीढ़ी की जिंदगी बर्बाद कर देता। अब तू जहाँ से आया है वहीँ चला जा तेरा ये सारा नाटक आज के बाद नहीं चलेगा, अपनी देवी भी भूल जा।" मन्नी चाचा ने गुस्से में माली की तरफ ऊँगली करके ये सारी बात बताई। ये सारी बात सुन कर दादी को बहुत दुःख हुआ और उनके आंसू निकल आये।

"माफ़ करदो बाबा माफ़ करदो में दुबारा ऐसा कुछ नहीं करूँगा मगर मेरी देवी सिद्धि मत छीनो।" माली रोनी सूरत बनाकर मन्नी चाचा के पैर पकड़ते हुए बोला।

"तेरी देवी ने तभी तेरा साथ छोड़ दिया था जब तू बहार हमसे बात कर रहा था, अगर तुझमे जरा सी भी कोई चीज़ बाकी होती तो ये दीये जल गए होते। अब उठ और निकल जा यहाँ से।" मन्नी चाचा ने गरजते हुए कहा।

माली रोता आंसू पोछता हुआ वहां से चला गया। मामा जी और मन्नी चाचा जो काम करने आये थे वो हो गया था फिर वो वहां दो दिन रुके और चले गए।

इन दो दिनों में माली के साथ क्या क्या हुआ था ये सारी बात आग की तरह पुरे मोहल्ले में फ़ैल गयी। और उस ढोंगी माली का सारा धंधा चोपट हो गया। कुछ दिन बाद वो वहां से कहीं और रहने चला गया।

दोस्तों, मन्नी लाल चाचा एक अघोरी थे, उन दिनों वो कानपुर के मेडिकल कॉलेज में मुर्दा घर के चोकीदार की पोस्ट पर रात की शिफ्ट में काम किया करते थे। एक बार एक दोस्त के घायल होने पर मामा जी हेलेट हॉस्पिटल गए वहीँ मामा जी की मुलाकात मन्नी चाचा से हुयी थी। फिर वो अच्छे दोस्त बन गए थे जब मामा जी ने मम्मी की चिट्ठी के बारे में मन्नी चाचा को बताया तो वो तुरंत आने को तैयार हो गए थे। वो बहुत ज्यादा ऊंचे अघोरी नहीं थे मगर माली का काम करने के लिए काफी थे। कुछ साल पहले मैं भी उनसे मिला था, उसके बाद सन २००९ में उनका देहांत हो गया। मगर उनके काफी एहसान आज भी हमारे ऊपर हैं।

घटवार का उपकार

सब कुछ सामान्य था उस दिन।
सावन के महीने में रविवार का दिन था, बारिश नहीं हो रही थी मगर मौसम अच्छा था। कोई आराम कर रहा था तो कोई पड़ोसियों के साथ अपने पुरे हफ्ते के अनुभव की चर्चा कर रहा था।
मैं भी सुबह उठ कर नाश्ता पानी करके टीवी देख रहा था। तभी कॉलोनी में जैसे हाहाकार सा मच गया। पूरा इलाका घर से बहार था, पूरी कॉलोनी में रोने की चिल्लाने की आवाज़ गूंजने लगी थी। मैंने उसी भीड़ में शामिल अपने एक दोस्त इस हंगामे का कारण पूछा तो मेरे भी होश उड़ गए।

हुआ ये था के हमारे करीब कुछ दूर पर एक परिवार रहा करता था, परिवार के मुखिया उपाध्याय जी अच्छे आचरण वाले और सम्रध व्यक्ति थे। उनके चार बेटे थे, रविवार का समय पाकर उपाध्याय जी के ३ बेटे गंगा किनारे अपने 2 दोस्तों के साथ उस सुहाने दिन के मजे लेने गए थे। जाने वहां क्या हुआ क्या घटना घटी ये किसी को नहीं पता था, मगर उन पांचो में से ४ वही डूब गए और सिर्फ एक जो की नदी में उतरा ही नहीं था डरा हुआ वापस आया और उनके घर वालों के घटना की जानकारी दी। जो कुछ भी उसने बताया उस पर विश्वास करना मुश्किल था।

हाँ वहां जो कुछ भी हुआ था उस लड़के के मुताबिक वो चारो डूब चुके थे। पुलिस बुलाई गयी रिपोर्ट हुयी और फिर छानबीन शुरू हुयी। उपाध्याय जी काफी पहुँच वाले आदमी थे इसलिए पुलिस बिना नतीजे के शांत नहीं बैठ सकती थी। पूरे दिन पुलिस ने छानबीन जारी रखी। जिस घाट के पास वो लोग नहाने गए थे उस घाट से २ किलोमीटर दूर तक पुलिस के गोताखोरों ने लाशो को तलाश किया परन्तु उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा। पुलिस की नींद उड़ गयी और उधर उपाध्याय परिवार में शोक के साथ एक उम्मीद भी आ गयी के शायद कुछ अनर्थ न हुआ हो।

सब एक आशा के साथ उन लोगो के लौट आने की उम्मीद में कुछ न कुछ प्रयास में लगे हुए थे। पुलिस ने उनके बचे हुए दोस्त को ही हिरासत में लेकर पूछताछ करना शुरू किया। लेकिन पुलिस को उस लड़के ने जो जो बताया वो सेकड़ो लोगो के सामने कल ही बयां कर चुका था।
उसने बताया था के वो पांचो कल सुहाना मौसम देख कर गंगा के **** घाट पर गए थे वहां उन लोगो ने बैठ कर पहले काफी बातें की और फिर उसके बाद घाट से गंगा के किनारे किनारे दूसरी तरफ चल दिए। वहां पर काफी शांति थी इसलिए पांचो ने वहीँ डेरा जमा लिया। फिर उनमे से चारो ने तय किया के इसे कुछ मजा नहीं आ रहा थोड़ी बीअर या शराब होती तो ज्यादा मजा आता। फिर उनमे से एक ने जाकर २ बोतल और कुछ गिलास का इंतजाम कर लिया। लेकिन वो पीता नहीं था इसलिए उसने उन चारो का साथ देने से मन कर दिया। वो शराब पी रहे थे और अपने अपने हफ्ते भर की बातों को कर रहे थे, जैसे जैसे उनकी शराब खत्म हो रही थी वहां का माहोल शांत और शांत होता जा रहा था। कुछ देर में वहां पानी के सिवा पेड़ पाल्लो में भी हलचल होना बंद हो गयी। उसने सोचा शायद आंधी तूफान आने वाला है उसने उन चारो से वापस चलने को कहा मगर वो चारो मिलकर ४ बोतल गटक चुके थे। उन्होंने सोचा अगर इसी हालत में घर गए तो बहुत जूते पड़ेंगे इसलिए सोचा के थोडा सा पानी में नहा लिया जाये ताकि नशा कम हो जाए और फिर अपने अपने घर चलेंगे।

फिर वो सब ही नहाने के लिए वहां बनी सीढियों से उतर कर नहाने के लिए नदी में उतर गए। न जाने फिर क्या कैसे हुआ एक एक कर के चारो उसी में अन्दर चलते चले गए और फिर ऊपर नहीं आये।

उस लड़के का इतना बयां लेकर पुलिस ने उसे जाने दिया और फिर से उस जगह और वहां आस पास फिर से छानबीन की। अभी भी उनके हाथ कुछ नहीं लगा। पुलिस ने सबको सिर्फ इतना बताया की चारो ने शराब पी हुयी थी इसलिए वो तैर नहीं पाए और डूब गए, शराब की भी जांच की गयी मगर वो ब्रांडेड शराब भी उसमे किसी असामान्य तत्व का होना मुश्किल था। मगर पुलिस अभी भी बेचैन थी के वो लोग डूब तो गए मगर लाश कहाँ गयी?

उपाध्याय जी के घर में जो माहोल था उसका थो बखान करना ही मुश्किल है। जिसके ३ बेटे जो मर चुके हो लेकिन उनकी लाश तक न मिली हो ऐसी माँ की क्या हालत होती है ये हर कोई समझ सकता है। वो सुबह होते ही मन्नत मांगने मंदिर जाती, कभी कुछ खाती तो कभी कुछ भी नहीं खाती, कभी रोती तो कभी हंसती तो कभी चिल्लाते हुए बाहर भागने लगती। आज तीसरा दिन था पूरा उपाध्याय परिवार उस दिन कोस ही रहा था और उन तीनो के मिल जाने की मन्नते कर रहा था।

दोपहर के समय एक बाबा हमारी कॉलोनी में आया उस वक़्त उपाध्याय जी और उनका बेटा पुलिस स्टेशन गए हुए थे। माँ जी तो घर में सो रही थी, सोना क्या उसे तो गम की बेहोशी ही कहेंगे, एक दो रिश्तेदार भी घर में थे।

घटना बहुत प्रचलित हो चुकी थी तो साधू ने पूरी घटना का बखान उनके आगे किया और फिर माता जी से कहा की "आपके तीनो बेटे मिल जायेंगे मगर इसकी कीमत लगेगी क्योकि वहां जो भी चीज़ है वो बहुत लालची है उसने ही तुम्हारे बेटो और उसके दोस्त अपने पास रखा हुआ है मगर उनकी जान छुपा ली है उसे धन चाहिए फिर वो उनकी जान वापस उनके शरीर में डाल कर लौटा देगा।"

"कैसी कीमत बाबाजी मैं हर कीमत देने को तैयार हूँ मगर मुझे मेरे बेटे चाहिए" माता जी ने उस बाबा से पूछा।

ये सारी बातें उन दोनों के बीच अकेले में चल रही थी क्योकि बाबा ने ही कहा था के वो ये बातें सिर्फ माता जी से करेगा।

"वो बहुत लालची आत्मा है इसलिए तुम्हारे पास जितना धन है सोना चांदी, लेकर वहीँ गंगा के रेतीले घाट पर आ जाना। मगर आधी रात को अकेले आना के तुम्हारे घर में भी किसी को पता न चले। हम उस आत्मा को उतने धन में ही मनाने की कोशिश करेंगे। और फिर तुम्हारे बेटे तुम्हे वापस मिल जायेगे। अगर तुमने ये बात किसी को घर में बताई तो वो हमारी क्रिया में बाधा डाल देगा और फिर तुम अपने बेटो से हाथ धो बैठोगी। समझ आया ?" बाबा ने माता जी से कहा।

"जी मैं बिलकुल समझ गयी।" आँखों में चमक लिए माता जी ने उस साधू से कहा। उन्हें अब उम्मीद की किरण नज़र आ रही थी।

बहुत मुश्किलों इंतज़ार से उन्होने उस दिन को काटा, और रात को होने वाले चमत्कार की आस में भूखी प्यासी रात का इंतज़ार करती रहीं।

जब रात हुयी तो उन्होंने जल्दी खाना खा कर सोने का नाटक किया। जब उपाध्याय जी भी गहरी नींद में सो गए तो करीब पोने एक बजे वो उठी और पहले से तैयार की हुयी अपने गहनों और रुपयों की पोटली को उठा कर चुपचाप घर से बहार निकल गयी और पहुँच गयी उसी स्थान पर जहाँ उस बाबा ने बताया था। बेटो को पाने की ख़ुशी में इतनी रात में भी उन्हें कोई दर नहीं लगा और सीधा वही पहुँच गयी। वहां वो बाबा थोड़ी सी आग जलाकर और कुछ सिंदूर, निम्बू, सुइयां, काला कपड़ा, थोड़े से चावल और अंडे लेकर बैठा कुछ पूजा पाठ जैसा कर रहा था।

"मैं ले आई हूँ बाबा सारा धन, कृपया जल्दी से मुझे मेरे बेटो से मिलवा दो।" माता जी ने उस बाबा से कहा।

"ठीक है माता वो सारा धन लेकर आप वहां बैठ जाओ।" उसने माता जी को एक तरफ बैठने को कहा।

फिर उसने सिंदूर से माता जी के चारो तरफ एक गोल वृत बना कर धन काले कपडे में रखने को कहा। उन्होंने वैसा ही किया।

फिर उसने कहा की "माता मैं ये निम्बू काटूँगा अगर इसमें से खून निकला तो मतलब आपके बेटे जिन्दा बचाए जा सकते हैं।"फिर उसने एक एक करके चार निम्बू काटे चारो में से खून निकला। माता जी सब कुछ शांत बैठी देख रही थीं।

"माता जी आपके चारो बेटो की जान सुरक्षित है अब ये धन आप इस वृत से बाहर रख दीजिये और मन ही मन ये कहिये के यहाँ जो भी शक्ति वास करती हो, मेरे बेटे मुझे देदो। और तब तक आँखें मत खोलना जब तक तुम्हारे बेटे आकर तुम्हे आवाज़ न दें। " बाबा ने माता जी को ये बात समझाई।

भोलीभाली बेटो के मोह में अंधी माताजी ने उस साधू की ये बात मान ली और जैसा उसने कहाँ वैसे ही मन ही मन जाप करने लगी। उन्होंने इस बात का ७ बार ही जाप किया होगा की अचानक उन्हें धम्म से कुछ गिरने की आवाज़ आई। जिससे उनकी ऑंखें खुल गयीं।
साधू बाबा माता जी के सामने हाथ में धन को वो पोटली लिए गिरे पड़े थे और सामने एक लम्बा चौड़ा आदमी खड़ा था, जिसने सफ़ेद रंग की धोती और ऊपर एक सफ़ेद चादर सी ओढ़ राखी थी, बाल कंधे तक थे। देखने में वो किसी पहलवान जैसा दिख रहा था।

"मेरी जगह पर आकर मेरे ही नाम से धन की चोरी करता है वो भी उसका धन जो बैठ कर मेरा ही जाप कर रही है। " उस आदमी ने गरजते हुए उस साधू से कहा।

"माफ़ करदो। मुझे माफ़ करदो मुझसे गलती हो गयी दुबारा ऐसा नहीं होगा।" साधू हाथ जोड़ते हुए विनती करने लगा।

"नहीं! तू यही भीख मांगेगा और मेरी हद में रोज़ सफाई करेगा।" उस आदमी ने उस साधू को डांटते हुए कहा।

"हाँ करूँगा सब करूँगा। मुझे माफ़ करदो मुझे कोई धन नहीं चाहिए, मुझे माफ़ करदो माता मुझे माफ़ करदो। " वो गिडगिडाए जा रहा था। और माता जी की समझ में ये आ चुका था ये साधू उन्हें लूटने आया था मगर ये नहीं समझ आया था की ये आदमी कौन है?

फिर उस आदमी ने उस साधू से वो पोटली छीन ली और फिर उसे माता जी को दिया फिर उस साधू को उठा कर एक तरफ फेक दिया साधू करीब ३ मीटर दूर जा गिरा और बेहोश हो गया।

"कौन हैं आप? और मेरे बेटे कहाँ हैं?" माता जी ने उस बलवान व्यक्ति से प्रश्न किया।

"मैं वही हूँ जिसका अभी तुम जाप कर रही थी, मैंने तुम्हारे बेटो की जान नहीं ली। वो तो खुद शराब के नशे में डूब गए और जहाँ डूबे थे वहां पर सीढियाँ बनी हैं उनकी लाशें उसी सीढियों के नीचे फसी हुयी है इसलिए वो किसी को नहीं मिल सकी।" उस आदमी ने माता जी से कहा।

"मेरे बेटे मुझे लौटा दो, मैं जिंदगी भर आपकी सेवा करुँगी ये सारा धन तुम रख लो।" माता जी ने रोते हुए उस व्यक्ति से हाथ जोड़ कर विनती करी।

"मुझे धन का कोई लोभ नहीं है माता, और तुम्हारे बेटो की मृत्यु हो चुकी है वो भी उनकी ही गलती से अब वो वापस नहीं आ सकते। आप इस सत्य को अपना लो माता और अपने धन के साथ परिवार में वापस लौट जाओ।" उस व्यक्ति ने माता जी से समझाते हुए कहा।

माता जी फूट फूट के रोने लगी उनकी सारी आस ख़त्म हो गयी थी। फिर उस आदमी ने माता जी का आँचल पकड़ा जैसे कोई बच्चा पकड़ता है और उन्हें अपने पीछे आने को कहा।
वो रो रही थी और करीब दस कदम ही चलीं होंगी की वो अपने घर के दरवाज़े के सामने थी। वो हैरान हो गयी और फिर पीछे मुड़ी और उस व्यक्ति से उसका परिचय पूछा।

"मैं वहीँ का घटवार हूँ माता जिसका आप जाप करके मदद के लिए पुकार रही थी, मैं आपके बच्चो की जिंदगी को नहीं लौटा सकता मगर कल तुम्हारे सारे बेटो की लाश वहीँ मिल जाएगी। अब आप अपने बचे हुए परिवार में खुश रहिये।" व्यक्ति ने माता जी से कहा और फिर माता जी अन्दर जाने के लिए कहा।

वो दरवाज़ा खोल के अन्दर गयी और जैसे ही पीछे मुड़ी वहां पर कोई नहीं था। मन ही मन घटवार की जय की और वापस अपनी जगह पर लेट कर रोने लगीं।

सुबह ४ बज रहे थे ,उनके रोने की आवाज़ सुनकर उपाध्याय जी की आँख खुल गयी और फिर उन्होंने माता जी इतनी सुबह सुबह इस विलाप का कारण पूछा।

माता जी ने सारी घटना सच सच बता दी। उपाध्याय जी को पहले विश्वास ही नहीं हुआ फिर उन्होंने बात मान ली जब अगले दिन उनके तीनो बेटो की और उनके दोस्त की लाश बरामद हो गयी।

पुलिस ने लाश की पोस्टमार्टम करवाया, मौत की वजह पानी में डूबना ही साबित हुयी। लाशो का अंतिम संस्कार हो गया और फिर सब कुछ सामान्य होने में ५ साल लग गए। उनका जो एक बेटा बचा था अब उसकी शादी हो चुकी है और घर में सब सामान्य है। उन्होंने घर बदल दिया है, लेकिन आज भी वो किसी भी पूजा में घटवार बाबा की जय कहे बिना पूजा नहीं करतीं।

दोस्तों ये घटना जब हमारी कॉलोनी में घटी थी तभी से में जाना था के घटवार क्या होते हैं? बाकी, घटवार के बारे में मैं आपको पिछली घटना में भी बता चूका हूँ। दोनों ही घटनाओ में इनके दो रूप दिखाई देते हैं।

धन्यवाद ॥।

Friday, June 28, 2013

बिना गुरु का साधक

दोस्तों, ये घटना बहुत पुरानी तो नहीं है मगर इससे भी बीते करीब ५ साल हो गया है।

जेसा के आप सब जानते हैं के बिना गुरु के ज्ञान नहीं हो सकता, लेकिन एकलव्य ने बिना गुरु के भी ज्ञान प्राप्त कर लिया था। जिससे एकलव्य एक अच्छे धनुर्धर बने थे। लेकिन एकलव्य की वो महनत वो लगन उनकी धनुर्विद्या के लिए पर्याप्त थी परन्तु तंत्र मंत्र के क्षेत्र में इस प्रकार की महनत किसी काम की नहीं। इस क्षेत्र में एक सिद्ध गुरु का होना अत्यंत आवश्यक है। गुरु के सानिध्य के बिना ये तंत्र मंत्र एक ऐसी तलवार साबित होते हैं जो खुद को ही हानि पहुंचाते हैं।

मेरे पड़ोस में एक चाचा जी की दुकान है, उनके परिवार में वो दो भाई और उनकी पत्नी और बच्चे हैं और एक बूढ़े पिता हैं। उन्हें सब छोटे चाचा जी कहा करते हैं और उनके पिता जी जो कभी कभी दुकान पर आते हैं उनका भी सब बहुत सम्मान करते हैं। ये छोटे चाचा तो अपनी दुकान से ही अपनी रोज़ी रोटी चलाते हैं और इनके बड़े भाई एक फैक्ट्री में अच्छी पोस्ट पर कार्यरत हैं।गंगा पार शुक्लागंज में इनका अपना मकान भी है जहाँ ये सारे रहते हैं। इनकी जिंदगी सामान रूप से चल रही थी, मगर अगस्त के महीने में आने वाली नाग पंचमी ने चाचा जी के बड़े भाई की जिंदगी बदल दी।

नागपंचमी का दिन था वेसे तो उन्हें मंदिर आना जाना ज्यादा अच्छा नहीं लगता था मगर उस दिन न जाने क्या सूझी के वो माल रोड स्थित खैरेपति मंदिर अपने एक मित्र के साथ चले गए। नागपंचमी के दिन खैरेपति मंदिर में तो जैसे सपेरो और नागो का मेल लगता है। दोनों वहां गए और तरह तरह के नाग दर्शन किये और प्रशाद वगेरह चढ़ा कर वापस आ गए। वापस आये तो काफी उत्साहित थे। उन्होंने अपनी पत्नी को बताया की वहां एक अजीब किस्म का नाग देखा जो की अत्यंत खुबसूरत और काफी बड़ा था। जब उन्होंने सपेरे से पूछा की वो कौन सा नाग है और कहाँ मिला उसे, तो सपेरे ने उन्हें बताया की उसने सर्प मोहिनी विद्या से किसी और सांप को पकड़ना चाहा था मगर ये वहां आ गया इसलिए इसे भी पकड़ लिया। चाचा जी ने उस विद्या और तंत्र मंत्र के बारे में कई सवाल पूछे मगर सपेरे ने विस्तृत जानकारी देने से मना कर दिया।

चाचा जी के मन में ये सब सीखने की लालसा जाग्रत होने लगी। उन्होंने सपेरे से अपना शिष्य बनाने का आग्रह किया मगर सपेरे ने ये कह कर टाल दिया के वो एक सांसारिक पुरुष हैं वो ऐसी वैरागी विद्या का दान उन्हें नहीं दे सकता।

इस बात का उन्हें दुख तो था मगर उनकी लालसा शांत नहीं हुयी। वो प्रति दिन किसी न किसी गुरु की तलाश में रहने लगे। कभी किसी के पास जाते तो कभी कहीं उन्हें बैठा हुआ देखा जाता था। समय और पैसा बारबाद करने लग गए थे वो कुछ लोभी उन्हें लालच देते थे तो कुछ शिष्य बना कर इनसे अपना काम निकलवाते और चलते बनते। घर में चाची जी इनसे परेशान रहने लगीं थीं। एक दिन उन्होंने अपने ससुर से ये सारी बातें बता दी और उन्हें समझाने को कहा। परिणाम स्वरुप चाचा जी की अच्छी आरती हुयी और फिर उन्होंने गुरु की तलाश और धन की व्ययता छोड़ दी और अपने सामान्य जिंदगी में वापस आ गए। लेकिन मन के किसी कोने में उनकी ये लालसा अभी भी पनप रही थी।

कुछ दिन बीते जब सब कुछ सामान्य हो गया। एक दिन चाचा जी गर्मी की वजह से छत पर सोने गए, अचानक रात के करीब बारह बजे वो अचानक छत से सीधा नीचे आँगन में आ गिरे। आवाज़ सुनकर सब दौड़े। चाचा जी बेहोश पड़े थे सबने सोचा के कहीं कोई चोर उचक्का तो नहीं है ऊपर जिसने इन्हें मारने की कोशिश की हो। छोटे चाचा ने ऊपर जाकर देखा तो वहां कोई नहीं था सिर्फ रक्त की कुछ बूंदे पड़ी हुयी थी ऊपर चारपाई पर बिस्तर लगा हुआ था। छोटे चाचा को लगा की शायद यहाँ कोई हाथापाई हुयी है मगर उन्हें ऐसा कुछ भी न मिला फिर सोचा के शायद उन्हें चक्कर आया होगा जिससे उन्हें चोट लगी और फिर नीचे जा गिरे।

फिर वो वापस नीचे बड़े चाचा के पास गए वो अभी भी बेहोश थे उन्हें उठा कर अस्पताल ले जाया गया वहां उन्हें अगले दिन सुबह होश आया मगर वो किसी को भी पहचान नहीं पाए। घर में हाहाकार मच चुका था। किसी की कुछ समझ नहीं आ रहा था के क्या से क्या हो गया है। सिर्फ चाचा जी ही बता सकते थे और वो ही अपनी याददाश खो चुके थे। डॉक्टर ने भी किसी भी मानसिक चोट की मोजुदगी से इनकार किया। सारी रिपोर्टें सामान्य थी न कोई अघात न कोई परेशानी। केवल तेज़ धड़कन और खोयी हुयी याद्दाश के सिवा।

खैर डॉक्टर ने उन्हें घर ले जाकर आराम करने सलाह दी, सो छोटे चाचा जी ने किया। वो घर आ गए चुपचाप बस एक कमरे में पड़े रहते न किसी से कुछ बोल रहे थे न किसी से बात कर रहे थे। दिन भर तो उन्होंने आराम किया मगर जेसे ही रात के बारह बजे वो अचानक चिल्ला पड़े "माफ़ करदो दुबारा नहीं होगा। हे बाबा माफ़ करदो।"

अब छोटे चाचा और उनके पिता जी जान सांसत में आ गयी के ये क्या हो रहा है। उन्होंने बहुत पूछा के कौन बाबा? किस्से माफ़ी मांग रहे हो? मगर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया और फिर बेहोश हो गए। छोटे चाचा और उनके पिता जी उन्हें वैसा ही सोता छोड़ इस बात के बारे में बात करने लगे और सोचने लगे की क्या किया जाए?

उन्हें कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था, हाँ मगर एक बात साफ़ हो गयी थी के ये कोई उपरी चक्कर था। इसलिए अब वैसा ही डॉक्टर ढूंडना था। एक दो दिन ऐसे ही गुज़रे सारे दिन चाचा जी आराम से रहते और रात को माफ़ी मांगने लगते। और इस तरह से चिल्लाते जेसे कोई उन्हें मार रहा हो।

तीसरा दिन था, चाचा जी की दुकान पर एक साधू आया "बेटा, हम उज्जैन से हरिद्वार की यात्रा पर हैं, अपनी हस्ती के हिसाब से कुछ दान दे दो।"

"अरे बाबा माफ़ करो यार, मेरी वेसे ही हालत ख़राब है आपको क्या दान दूंगा?" चाचा जी ने माफ़ी मांगते हुए साधू से कहा।

"जैसी तुम्हारी इच्छा बेटा, लेकिन एक काम करो यहाँ गंगा किनारे हमारे गुरु जी ने कुछ दिनों के लिए विश्राम शिविर लगाया है। चाहो तो बड़े भाई को वहां ले आओ। ठीक हो जायेगा।" साधू ने शांत भाव से कहा।

चाचा जी की आँखें चौड़ी हो गयी, फिर सोचा शायद आप पास किसी ने बताया होगा और फिर कुछ पैसे निकाल बाबा के पात्र में डालने लगे। मगर बाबा ने अपना पात्र हटा लिया। और कहा "नहीं बेटा, हम तो वैरागी लोग हैं हमे सिर्फ थोडा सा अनाज दे दो।" चाचा जी ने कुछ चावल बिना तोले एक थेली डाल कर दे दिए। वो साधू आशीर्वाद देता हुए चला गया। फिर चाचा जी ने अपने घर पिता जी को फ़ोन किया और सारी बार बताई। उन्हें तो जेसे उम्मीद की एक रौशनी दिखाई दी। चाचा जी शाम से पहले ही अपनी दुकान बंद करके घर पहुंचे और फिर दान के लिए कुछ वस्तुएं ली, कुछ फल और थोडा अनाज। फिर वो दोनों बड़े चाचा जी को लेकर उसी विश्राम शिविर में पहुँच गए। चाचा जी को वो साधू वहीँ मिले और फिर चाचा जी को बैठाया। पानी वगेरह से ठीक उसी तरह सेवा की गयी जेसा की भारत की संस्कृति में मेहमानों को भगवान् मान कर की जाती रही है।

फिर उन साधू ने चाचा जी के पिता जी के साथ बड़े चाचा जी और छोटे चाचा जी को अपने गुरु से मिलवाया। चाचा जी के अनुसार उनके गुरु देखने से ही कोई सच्चे साधू लग रहे थे।पर्वत जेसी जटा, चमकता ललाट, मुख पर तेज़, वाणी में सोम्यता और अतिथि के प्रति उतना ही सत्कार। वो चाचा जी लोग के सामने ऊँचे स्थान से उतर कर उन्ही के बराबर में जमीन पर बैठ गए। और खैरियत वगेरह पूछी। चाचा जी ने सारा वृतांत उन्हें सुना दिया।

सब कुछ अच्छी तरह सुनने के बाद उन्होंने चाचा जी के पिता जी से कहा "जो कुछ ये हुआ ये तो नादानी से हुआ है। आप बस इतना कीजियेगा के आज तो शनिवार है, सोमवार को सेतु (पुल) के नीचे एक दीया, एक जोड़ी खड़ाऊ, एक लंगोट, एक चिलम और कुछ फूल और सफ़ेद बर्फी लेकर चढ़ा देना। और माफ़ी मांगते हुए कहना के महाराज ये तो एक नासमझ बालक है इससे जो भी गलती हुयी है क्षमा कर दीजिये और अपना भोग लेकर हम पर कृपा कीजिये। ऐसा ये दुबारा नहीं करेगा। और ये काम सिर्फ आप करना अपने लड़के को मत भेजना ठीक है? और कोई कितनी भी आवाज़ दे पीछे मुड़कर मत देखना न आते वक़्त ना जाते वक़्त।"

"बाबा, आपकी बात समझ तो आ गयी मगर ऐसा क्या हुआ है इसके साथ? इससे इसी कौन सी गलती हो गयी?" चाचा जी के पिता ने हाथ जोड़ कर साधू महाराज से पूछा।

"बालक बुद्धि है, एक किताब से पढ़कर बड़ी शक्ति को रक्त भोग दे कर सिद्ध करना चाह रहा था वो भी गंगा किनारे। न अपनी कोई सुरक्षा की और न ही घटवार शक्ति की आज्ञा ली। वो शक्ति तो इसके पास नहीं आई लेकिन घटवार ने इस चेष्टा के लिए इसे दंड दिया है। इसलिए क्षमा मांग कर जब ये ठीक हो जाए तो इसे समझा देना के ऐसा न करे।" साधू बाबा ने सोम्यता के साथ ये बात समझाई।

सारी बार समझ चुके थे, दोनों ने साधू बाबा को प्रणाम किया और दान में जो वास्तु लाये थे दे दी, अब सो पहले बड़े चाचा जी को उसी वक़्त गंगा स्नान करवाया और घर ले गए। अगले ही सोमवार को चाचा जी के पिता जी ने घटवार बाबा से क्षमा याचना की। शाम होते होते बड़े चाचा जी ठीक हो गए। करीब एक हफ्ते के अन्दर अन्दर वो सामान्य हो गए और अपनी नोकरी पर जाने लगे। सब कुछ सामान्य होने के बाद चाचा के पिता जी ने उनकी इस बाद पिछली से ज्यादा अच्छी आरती उतारी और उनकी तंत्र मंत्र की सिद्धि की किताब लेकर फैंक दी।

साधू बाबा अपने शिष्यों के साथ अगले दिन ही वापस अपनी यात्रा पर चल पड़े थे। चाचा जी और उनके परिवार में से किसी को भी उनसे दुबारा मिलने का मौका नहीं मिला। वो तो सिर्फ एक रूप में ईश्वर की तरह आये थे चाचा जी की समस्या का समाधान करने।

तो दोस्तों, पढ़ कर सिर्फ सांसारिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है अध्यात्मिक और तंत्र मंत्र का ज्ञान गुरु के बिना संभव नहीं है। इसलिए कहा गया है "गुरु बिन ज्ञान कहाँ।"

धन्यवाद।

जीवाधारी - खज़ानो के रक्षक

दोस्तों, ये घटना तब की है जब मेरी नानी जी की उम्र १५ - १६ की रही होगी। तब वह उत्तर प्रदेश के सुलतान पुर जिले के एक गाँव में रहती थीं वहीँ उनका मायका है। उस समय में अक्सर बंजारे और नट अपनी टोलियाँ बनाकर घूमा करते थे। ये नट और बंजारे एक स्थान से दुसरे स्थान पर घूमते थे और जहाँ ज्यादा आबादी देखते थे वहां पर अपना मेला लगा कर करतब दिखाया करते थे और पैसे कमाते थे।

ये बंजारे हमेशा अच्छे नहीं होते थे। अक्सर बंजारों और नटों की टोली के रूप में डाकुओ की भी टोली घूमा करती थी। जो दिन में तो मेला लगाते थे मगर रात में लूटपाट किया करते थे। इसलिए अक्सर गाँव के जानकार लोग अपने गाँव के आसपास इस तरह का नटों का मेला नहीं लगने देते थे।

एक बार एक ऐसा ही मेला नानी के गाँव से थोड़ी दूर पर लगा हुआ था। वहां गाँव के बच्चे अक्सर जाने की जिद किया करते थे मगर कोई उन्हें वहां जाने नहीं देता था। इतना ही नहीं गाँव वालो ने बच्चो का खेतों में जाना और दोपहर को बाहर खेलने से मना कर दिया था। बच्चो को ये बात बहुत ख़राब लगती थी मगर बड़ो के आगे बच्चो की कहाँ चलती। इसलिए बच्चे न चाहते हुए भी सिर्फ तभी तक घर के बाहर खेलते थे जब तक कोई न कोई बड़ा उनके साथ रहता था। मेरी नानी ये सब रोज़ देखती थी ऐसा सिलसिला करीब एक महीने तक चला जब तक वहां वो नटों का मेला लगा हुआ था।

नानी को ये बात बहुत अजीब लगती थी के नटों का टोला हो या डाकुओ का आखिर बच्चो के ऊपर ये बंदिश क्यों है? खैर इस बात का जवाब बच्चो को सिर्फ यही मिलता था के ये नट उन्हें पकड़ ले जायेंगे।

करीब एक महीने तक बच्चों पर बंदिश और बड़ो पर डर का साया रहा। इन सब बंदिशों के बावजूद एक दिन सुबह दस बजे के करीब गाँव में काफी शोरशराबा मचा और पता लगा के एक पड़ोस का एक छोटा बच्चा करीब दस साल का एक लड़का घर से बाहर आया था और गायब हो गया। पूरे गाँव में उसे ढूँढा गया मगर कहीं उसका पता नहीं चला। आखिर कार गाँव के हर घर से सरे बड़े मर्द जोर शोर से उस लड़के की तलाश में लग गए। उन्हें शायद आने वाले खतरे का पता था इसलिए। पहले गाँव और खेत का चप्पा चप्पा छान मारा उन लोगों ने जब उस लड़के की गाँव में गैरमोजुदगी निश्चित हो गयी। फिर वहां के सारे मर्द एकत्र हुए और बिना किसी देर के अपने अपने हाशिये, कुल्हाड़ी, कुदाल वगेरह लेकर चल पड़े उस नटों की टोली की तरफ।

उस बच्चे के घर पर रोना पिटना मचा हुआ था। आस पास के सब लोग अपनी अपनी शंकाएं जताते और बच्चे को बार बार ढूंडते। मगर इस का कोई फायदा नहीं हो रहा था। दूसरी तरफ जब मर्दों की टोली उन बंजारों के मेले के पास पहुंचे तो चौंक गए। वहां अब सब खाली था सिर्फ चूल्हों की राख और तम्बू गाड़ने के निशान मौजूद थे। अब सबका शक यकीन में बदल चुका था, बच्चे को कोई और नहीं वो नट ही चुरा के ले गए हैं।

अब गाँव के सारे लोग वहीँ रण निति बनाने लगे की आगे क्या किया जाए। सबने अलग अलग दिशा में जाने का फैसला किया। क्योकि तब यातायात की इतनी सुविधा नहीं थी इसलिए उन बंजारों का बहुत दूर निकलना असंभव था। लेकिन उसने लड़ने का सामर्थ भी सब नहीं रखते थे क्योकि ये अच्छे लड़ाके भी हुआ करते थे। इसलिए रणनीति बनाना जरुरी था। फिर सबने तय किया की हर रस्ते हर दिशा की तरफ कुछ लोग जायेंगे और पता चलते ही सब एकत्र होकर वहां जाकर उस बच्चे की तलाश करेंगे और वो लोग न मिले तो दोपहर तीन बजे से पहले सब अपने गाँव में एकत्र हो जायंगे।

सब लोगो ने एक अलग अलग दिशा पकड़ी और अपनी अपनी राह चल पड़े। ५-५ लोगो का समूह अपनी अपनी राह पर अग्रसर था। पश्चिम की तरफ जाने वाले समूह के आखिर उनके निशान और फिर वो उनका वो टोला मिल गया। उन सबके पास वापस जाकर बाकि लोगो को बुलाने का वक़्त नहीं था। इसलिए वो किसी मौके के तलाश करने लगे और उनके झुण्ड में उस बच्चे को तलाशने लगे। लेकिन वहां उस बच्चे का कोई सुराग नहीं मिला।

फिर उन्होंने ये सोच लिया के शायद बच्चा इनके पास नहीं है वरना ये उसे अचेत अवस्था में ही सही साथ तो रखते। वो आशा खोने ही वाले थे के किस्मत ने उनका साथ दे दिया। और उनकी भीड़ से निकल कर एक आदमी नित्य कर्म के लिए कुछ दूर चला गया। पांचो ने फिर उसी से पूछताछ करने की ठानी। वो पीछे से जाकर उसके ऊपर टूट पड़े और दो लाठी उसके सर पे जमा कर उसे बेहोश कर दिया। फिर एक तांगे पर उसको लाद कर वापस अपने गाँव की और चल पड़े। वो जितनी जल्दी हो सकती थी कर रहे थे। क्योकि उसके साथी उसको ढूंढने जरुर आने वाले थे।

वो लोग उसको लेके आधे घंटे में अपने गाँव पहुँच गए बाकी सब भी वापस आये तो उन लोगो ने उसके सर पर एक मटका ठंडा पानी डाला और उसे होश में लाये। होश में आते ही वो आस पास गाँव वालो को देख कर घबरा गया।

लेकिन बिना मार खाए उसने कुछ नहीं बताया। जब गाँव वाले मिलकर उसको उसकी सहन शक्ति से ज्यादा खुराक देने लगे तो वो जान गया की उसकी जान के लाले पड़ने वाले हैं। फिर उसने बताया की वो बच्चा कहाँ है। उसने जो बताया उससे सबके होश उड़ गए और उसी वक़्त पास के गाँव के सिद्ध तांत्रिक को बुलाने के लिए कुछ लोग निकल पड़े और बाकि उसे लेकर उस दिशा में निकल पड़े जहाँ वो बच्चा था।

उसने बताया की उनकी टोली के सरदार ने उस लड़के को जीवाधारी बनाने के लिए इस्तेमाल किया है। उसकी जान को खतरा है अगर उसे बचाना है तो या तो उनकी टोली के उसी तांत्रिक को बुलाओ जिसने उसे इस्तेमाल किया है या फिर उससे ज्यादा माहिर खिलाड़ी को।

इसलिए गाँव वाले पास के गाँव के सिद्ध तांत्रिक को लाने के लिए निकल पड़े। वो तांत्रिक को लेकर जल्दी से जल्दी आ गए और वहीँ पहुँच गए जहाँ पर वो नट गाँव वालो को लेकर उससे बच्चे का पता बताने ले गया था। उसने एक जगह एक अजीब सा लिखा हुआ पत्थर दिखाया और गाँव वालो से वहां खोदने को कह दिया। गाँव वाले खोदने में लग गए और कुछ लोग रह रह कर उसको मारते जा रहे थे और धमकी दे रहे थे की अगर बच्चे को कुछ हो गया तो उसकी कब्र यहीं बना देंगे। वो तांत्रिक काफी बूढ़े थे, वो भी आ चुके थे और सब कुछ समझ लेने के बाद भी सबके साथ गड्ढे के खुदने का इंतज़ार कर रहे थे। करीब चार फुट खोदने के बाद वहां एक पत्थर की परत आ गयी जो तीन चार पत्थर से मिलकर बनायीं गयी थी और फिर संभाल कर सबने मिलकर उस पत्थर की परत को हटाया। नीचे जो उन लोगो ने देखा उससे उन्हें कोई ख़ुशी नहीं मिली।

नीचे एक कमरा सा बना हुआ था करीब ५ फुट चोडा और ६ फुट लम्बा। उसमे ५ बड़े बड़े घड़े रखे हुए थे पूरे सोने चांदी से भरे हुए और पास में वो बच्चा लेटा हुआ था नए नए कपड़ो में अच्छा खासा तैयार किया हुआ और उसकी सांसे रुक रुक के चल रही थी और पास में एक दीया जल रहा था जिसका तेल ख़त्म हो चुका था और वो बुझने ही वाला था। सबने उस बच्चे को मरा हुआ समझ लिया और उस नट को दुबारा बुरी तरह पीटना शुरू कर दिया।

तभी वो तांत्रिक बाबा आगे आये और दीये की बाती को थोडा बढ़ा दिया। दीये की लो तेज हो गयी और बच्चे ने आखें खोल दी। सबकी ख़ुशी का ठिकाना न रहा मगर बच्चे ने किसी को भी पहचाना नहीं और अनजान की तरह सबका चेहरा देखने लगा।

तांत्रिक बाबा ने सबसे कहा की "ये बच्चा अभी जिन्दा है, लेकिन ये तभी जिन्दा बच सकता है अगर ये मेरी सिद्ध की हुयी जगह पर पहुँच जायेगा। वरना इसे कोई नहीं बचा सकता। इसे लेकर मेरे स्थान पर चलो और सब इस बात का ध्यान रखना के ये दीया न बुझने पाए, इसमें तेल बढ़ा दो और इसकी अच्छे से देख रेख करना जब तक में इसे बुझाने के लिए न कहु।"

फिर कुछ लोग और तांत्रिक बाबा उस बच्चे को तांगे पर लेकर बाबा के स्थान पर पहुँच गए और वहां जो कुछ भी किया वो किसी ने नहीं देखा क्योकि वो क्रिया बाबा ने अकेले में की थी। करीब १ घंटे बाद एक आदमी वहां वापस पहुंचा और उनसे बताया की बाबा ने दीया बुझाने को कह दिया है। दीया बुझा दिया गया और अब वो बच्चा सुरक्षित था। और सबको पहचानने भी लगा था।

उसके बाद जितना भी खजाना वहां मिला था उसके थोड़े से हिस्से से मंदिर बनवाया गया और बाकि गाँव के प्रधान ने गरीबों के बच्चो की शादी और गाँव की भलाई में लगा दिया। उस नट को बचाने उसके साथी नहीं आये गाँव वालो ने उसे १ हफ्ते तक कैद रखा उसके बाद धमकी दे के छोड़ दिया।

दोस्तों ये तो थी वो घटना जो वहां घटी थी लेकिन इसके असली पहलु बाद में उजागर हुए।अगर ये घटना न घटी होती तो शायद आज हम इतना बड़ा रहस्य न जान पाते। वो रहस्य मैं आपको बताता हूँ

"वहां जो नट आये हुए थे असल में वो लुटेरे नट थे, इन नटो का ये काम होता था एक आबादी वाले क्षेत्र से कुछ दूर मेला लगाना और फिर रात को लूटपाट करना और जब ये ज्यादा खजाना इकठ्ठा कर लेते थे। तो ये उसे जमीन में गाड़ देते थे। इनके साथ एक तांत्रिक भी होता था बहुत माहिर तांत्रिक जो अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करके ये भी बता दिया करता था खजाना कहाँ कहाँ है! यही तांत्रिक जीवाधारी बनाते हैं, अपने खजानो की रक्षा के लिए।

जीवाधारी बनाने के लिए ये किसी के भी बच्चे को चुरा लिया करते थे क्योकि बड़ो से ये काम करवाना मुश्किल था और बच्चो को बहलाना आसान। ये जिस बच्चे को चुराते थे, ये उसे उसके पसंद की और भी बहुत अच्छी चीजें खिलाते थे ताकि वो ज़रा भी भूखा न हो। फिर उसे नहला धुला कर नए नए कपडे पहनाये जाते थे, पैरो में रंग आँखों में काजल और बालो में खास किस्म का तेल लगा कर उन्हें बैठाया जाता था फिर तांत्रिक अपनी क्रिया करते थे जिसमे वो बच्चा अपनी सुधबुध खो देता था। उस बच्चे को भिन्न भिन्न शक्तियों से सुसज्जित किया जाता था और उसके नाम का दीया उसके बगल जला दिया जाता था। उसके बाद उसके सामने उस कबीले का सरदार आता था और

कहता था "देखो मुझे और अच्छी तरह पहचान लो। ये खज़ाना मेरा है और तुम इसके रक्षक हो जो मेरे सिवा मेरा खजाना लेगा तुम उसको जिन्दा नहीं छोड़ना। मैं वापस आऊंगा और अपना खजाना ले जाऊंगा उसके बाद तुम आज़ाद हो जाओगे। " ऐसी तांत्रिक क्रिया के बाद वो बच्चा उस इंसान को नहीं बल्कि की आत्मा को पहचान लेता है। फिर वो उसे खजाने के साथ उस गड्ढे में दफ़न करके चले जाते थे। जैसे ही हो दीया बुझता था उसकी आत्मा एक अत्यधिक शक्ति शाली शक्ति का रूप ले लेती थी और महीने, साल क्या सदियों तक अगर वो ना आये तो भी खजाने की रक्षा करती हैं। फिर वो इंसान चाहे इस जन्म में आये या फिर किसी और जन्म में ये शक्ति सिर्फ उसकी आत्मा को ही पहचानती है और खज़ाना लेने से नहीं रोकती। अक्सर आपने देखा होगा कभी कभी कहीं किसी को खज़ाना मिल जाता है ये जीवाधारी उनकी आत्मा पहचान कर उन्हें खजाना लेने से नहीं रोकते। "

दोस्तों, ये कर्म निर्दयी होता है लेकिन इसका इस्तेमाल राजा महाराजा भी किया करते थे लेकिन उस समय में इंसान बहुत इमानदार हुआ करते थे जो खुद राजा की खातिर जीवाधारी बनने को तैयार हो जाते थे। आपने देखा होगा के इन जीवाधारीयों को अक्सर कुछ तांत्रिक हरा देते हैं ये केवल उन्ही जीवाधारियों के साथ संभव हो पता है जो बाल अवस्था में ही जीवाधारी बनाये गए हो। लेकिन राजा महाराजा के जीवाधारियों को हराना संभव नहीं होता क्योकि वो अपनी मर्जी से युवा अवस्था में अपना बलिदान देते हैं और बहुत अधिक शक्तिशाली हो जाते हैं। उनकी इमानदारी ही उनकी सबसे बड़ी शक्ति बन जाती हैं।

धन्यवाद।

घटवार - गंगा तट के रक्षक

ये बात काफी पुरानी नहीं है ये बात तब की है जब अयोध्या का फैसला आने वाला था ।
कानपुर में दंगो के डर से कानपुर बंद था । हर कोई किसी न किसी तरह से अपनी छुटटी के मजे ले रहा था । मेरे पड़ोस में रहने वाले एक चाचा जी अक्सर अपनी छुट्टी गंगा किनारे व्यतीत करते थे । मछलियों के बड़े शोकीन थे। इसलिए अक्सर छुट्टी के दिन मछलियाँ पकड़ने गंगा किनारे चले जाया करते थे। कभी कम तो कभी ज्यादा मगर मछली पकड़ने में उस्ताद थे। उस दिन उन्होंने अपना दिन का खाना निपटाया और फिर अपनी पत्नी यानी चाची जी से मसाला पीस कर रखने को कहा और चले गए गंगा किनारे मछली पकड़ने । जैसा मेने आप सब को बताया के वो अक्सर मछली पकड़ने जाते थे। लेकिन उस दिन कुछ अलग ही हुअ। वो मछली पकड़ने के लिए अक्सर गंगा बैराज जाया करते थे। लेकिन कानपुर में उस दिन कर्फ़ू जैसा माहोल था , जिसके चलते उन्हें वहां तक जाना उचित नहीं लगा क्युकी कोई भी सवारी मिलना मुश्किल थ।
इसलिए आज वो शुक्ला गंज की तरफ जाने वाले गंगा पुल के नीचे मछली पकड़ने चले गये । दोपहर के कोई ढाई बजे के वक़्त था । वो अपनी ही धुन में मस्त गुनगुनाते हुए मछलियाँ पकड़ने में व्यस्त थे। लेकिन पैंतालिस मिनट के बाद भी एक भी मछली हाथ नहीं लगी । लेकिन हर मछली पकड़ने वाले में सब्र का सैलाब होता है । वो भी सब्र करे हुए मछली पकड़ने की पूरी कोशिश करते जा रहे थे वैसे भी गंगा के किनारे की खूबसूरती इतनी मोहक होती है की वहां बैठने वाले इंसान का दिल कभी भर ही नहीं सकता तो बोर होने की बात ही अलग है। वो भी अपनी ख़ुशी में मग्न अपने काम में लगे पड़े थे।

अचानक उन्हें महसूस हुआ के उनके कांटे में कोई मछली फसी है । उनके मन में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी लेकिन अभी पहले उन्हें देखना था के मछली है कितनी बड़ी अगर छोटी हुयी तो कोई फ़ायदा नहीं होगा क्योकी उनके परिवार में ५ लोग है सिर्फ एक छोटी मछली से कोई फ़ायदा न होता । खैर वो अपनी इतनी देर बाद आई पहली सफलता को लेकर ही उत्साहित थे। उन्होंने कांटे की डोर को पकड़ कर बहार खींचना चाहा मगर उन्हें भार ज्यादा लगा और वो उसे खिंच नहीं पाए ।
उन्होंने अपनी उस मछली पकड़ने वाली डोर को एक पत्थर से बांध दिया और पूरा जोर लगा कर उस मछली को बहार निकलने में लग गए । वो काफी जोर लगा रहे थे मगर उसे बहार खिंच नहीं पा रहे थे, एक तरफ उनके मन में बड़ी मछली पकड़ने की ख़ुशी उन्हें हार नहीं मानने दे रही थी और दूसरी तरफ वो मछली जो बहार आने की बजाये जैसे चाचा जी को ही अन्दर खीचना चाहती थी । काफी जोर लगाने के बाद जब चाचा जी ने समझ लिया के ये मछली अब बहार नहीं आ सकती और न ही कोई और वहां था जो चाचा जी की मदद कर सकता , चाचा जी ने उस मछली को छोड़ देने का फैसला किया और एक आखिरी उम्मीद की साथ थोडा सा डोर को ढीला छोर कर फिर एक साथ अपना सारा जोर लगा कर उसे खिंचा । वो मछली बहार आ गयी । ये देख कर उनके चेहरे पर चमक आ गयी वो मछली देखने में करीब ४ फुट की थी और वजन करीब ८ किलो होगा ।

वो कांटे के साथ उछल कर बहार आई थी चाचा जी से करीब ३ मीटर की दूरी पर । चाचा जी अपना सामान वगेरा छोर कर उसके पास ख़ुशी से गए ये सोचते हुए की इतनी बड़ी मछली को अकेले कैसे घर ले जा पाएंगे ? वो उस मछली के पास पहुंचे पहले तो उसे मछली को देख कर दंग रह गये। वो मछली बहुत अजीब किस्म की थी जैसी उन्होंने अपनी जिंदगी में नहीं देखी थी । काली और थोड़े से हरे रंग के दाग से थे उस मछली पर लेकिन सबसे ज्यादा हैरान करने वाली बात जो थी वो ये थी के उस मछली ने अपने मुंह में एक इंसान का सर पकड़ रखा था मानो जैसे के वो उसे खाने वाली थी ।
इस बात से वो बिलकुल भी नहीं डरे क्योकि लाख पाबन्दी के बाद भी कभी कभी गंगा में लाशें देखी जाती हैं । जिन्हें अगर सरकारी कर्मचारियों ने देख लिया वो उसे निकल लेते हैं वरना न जाने कहाँ तक उसका सफ़र जारी रहता होगा , इसी ही लाशो को अक्सर बड़ी मछलियाँ भी खा जाती है। ऐसा ही कोई वाक्या समझ कर चाचा जी को दर नहीं लगा उन्होंने सोचा शायद किसी लाश को खाने की कोशिश की होगी इस मछली ने मगर खा नहीं पायी इसलिए ये सर इसके मुंह में ही फंसा रह गया । वो मछली बिना तड़पे यथावत पड़ी हुयी थी , जो सर उसके मुंह में था उसका पीछे का हिस्सा चाचा जी जो दिख रहा था । मछली की पड़ताल करने के लिए चाचा जी पहले धागा खिंचा ।

दोस्तों जैसा की आप लोग जानते हैं मछली पकड़ने पर काँटा हमेशा उसके मुंह में होता है तभी वो पकड़ में आती है लेकिन इस मछली को वो काँटा उसकी पूँछ में लगा था। आम तौर पर पूँछ पर काँटा लगता नहीं है और अगर लग भी जाए तो मछली उससे आसानी से निकल जाती है चाहे वो कितनी भी छोटी मछली क्यों न हो । और इतनी बड़ी मछली पूँछ पर काँटा लगने के बाद भी पकड़ में आ गयी, ये दूसरी बार था जो उस मछली ने उन्हें हैरान किया था । लेकिन अब वो इनसब बातों को भूल कर बस ये सोचने लगे की इस सर को इसके मुह से निकाल कर इसे घर ले चलते हैं ।
उन्होंने मछली को पलट दिया अब उस मछली के मुंह में फंसे उस सर कर चेहरा चाचा जी की तरफ हो गया । देखने से लगता था की वो किसी ज्यादा उम्र वाले व्यक्ति का सर नहीं था और न ही वो लाश ज्यादा पहले गंगा में फेकी गयी होगी । उस सर का चेहरा सही सलामत था । वो उसे निकलने की कोशिश करने लगे. फिर उन्होंने सोचा के सर को हाथ लगाना ठीक नहीं इसलिए उन्होंने अपने छोटे से थैले से जिसमे वो मछली पकड़ते वक़्त जरुरत का सारा सामान रखते थे , एक छोटा सा चाकू निकाला। उन्होंने सोचा के मछली के मुंह को थोडा सा काट कर फैला दिया जाये तो वो सर बाहर निकल जायेगा जिसे वो वापस गंगा में फेंक कर मछली लेकर चलते बनेंगे । जैसे ही उन्होंने वो चाकू मछली के मुंह पर रखा उस चेहरे ने आंखें खोल कर चाचा जी तरफ देखा। एक पल को दोनों की नज़र मिली फिर चाचा जी को काटो तो खून नहीं ।

ऐसा द्रश्य देख कर चाचा जी की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा और वो झटके से पीछे हटे। और खूब जोरो से चिल्लाते हुए अपना सारा सामान छोड़ कर घर की तरफ दौड़ पड़े । उनके घर से उस गंगा घाट की दूरी कोई एक किलोमीटर है इतनी दुरी उन्होंने दौड़ते हुए ही तये की, वो घर पहुँचते ही घर में गिर कर बेहोश हो गए और वो कपड़ो में ही मल मूत्र त्याग कर चुके थे । उस वक़्त उनके दर की कोई सीमा नहीं थी।
घर में हाहाकार मच गया पडोसी घर में मधुमक्खी के तरह जमा हो गए। किसी को कोई अंदाज़ा नहीं था के उनके साथ क्या हुआ है इसलिए सब ज्यादा परेशान थे । बच्चे बड़े हैं उनके, उन्होंने चाचा जी के कपडे बदले और उन्हें अस्पताल लेकर गए । जहाँ डॉक्टर ने उन्हें कोई सदमा या डर बेहोशी की वजह बताया । ये सुनकर सब हैरान थे के सदमा या दर किस बाद का लगा उन्हें और सब मिलकर केवल उनके होश में आने का इंतज़ार करने लगे । करीब ४ घंटे बाद उन्हें होश आया, खुद को सुरक्षित महसूस करने के बाद उन्होंने थोड़ा राहत की साँस ली । फिर सारा वाक्या उन्होंने अपनी पत्नी और बड़े बेटे को सुना दिया, किसी के लिए भी विश्वास करना मुश्किल लेकिन चाचा जी की हालत उस घटना की सच्चाई को साबित कर रही थी । चाचा अब डर से उभर तो गए थे मगर उन्हें जोरो का बुखार आये जा रहा था । अस्पताल में सारे डॉक्टर पूरी कोशिश में लगे थे मगर बुखार में कोई कमी नहीं आ रही थी । काफी कोशिश के बाद जब उनकी हालत में कोई सुधर नहीं आया तो उनके बड़े बेटे ने तांत्रिक का सहारा लेने का फैसला किया।
ना जाने कहाँ से ढूंढ कर वो एक तांत्रिक को लेकर आया । देखने में वो एक साधारण आदमी लगता था कोई खास बात उसमे दिखाई नहीं देती थी मगर उसके काम अचूक थे । वो सुबह अस्पताल में आया और थोड़ी देर चाचा जी से बात की और फिर चला गया। शाम को वो दुबारा आया और फिर उसने जो बताया वो सच में चौकाने वाला था ।

उसने बताया के चाचा जी जब मछली पकड़ने गए थे तो उस समय वहां उन्हें कोई नहीं मिला था न कोई मछुआरा न कोई नाव वाला मल्लाह। क्योकि सब इस बात को जानते हैं ।
गंगा हो या यमुना या फिर और कोई भी नदी। हर नदी के किनारों पर घटवार होते हैं कोई बहुत सोम्य व्यवहार वाले तो कोई अत्यंत कठोर। ये इन नदी के किनारों के रक्षक होते हैं । जरुरी नहीं एक ही रक्षक हर वक़्त किनारों की रक्षा करता हो ये घटवार भी कई सारे होते हैं हर किसी का वक़्त होता है। दिन के किस पहर किसको रक्षा करनी है एक व्यवस्थित तरह से सब कुछ तय होता है। जो लोग अक्सर डूब कर मरते हैं या अकाल मौत मरते हैं और घाट पर उनका संस्कार किया जाता है , उन सबकी आत्माओ और मल्लाहो के भोग से ये और भी शक्तिशाली हो जाते हैं।
ये एक उन्मुक्त शक्ति होते हैं। कोई तांत्रिक इनसे टकराता नहीं अगर ये किसी पर नाराज़ भी होते हैं तो तांत्रिक केवल इन्हें खुश करके ही इनका साया हटा पाते हैं। अगर किसी पर ज्यादा नाराज़ हो जाये तो उसे अगली साँस लेने का मौका भी न दे और अगर किसी पर खुश हो जाए तो जिंदगी भर उनकी रक्षा करते है। नाव वाले मल्लाह इन्ही की पूजा करते हैं और इनके आशीर्वाद और कृपा के बाद ही वो अपनी नाव नदियों में उतारते हैं जिससे उनकी नाव बड़ी सी बड़ी लहरों से भी बच निकलती हैं। ये अक्सर चिलम, लंगोट, खडाऊ और सफ़ेद मिठाई का भोग लेते हैं। इनकी हद में भूत प्रेत तो क्या देवता भी नहीं आ पाते। हमेशा किसी भी नदी के तट पर नदी में नहाने से पहले घटवार बाबा की जय बोलकर पहले नदी के पैर छूने चाहिए फिर नहाना चाहिए, ऐसा आज भी घाटो पंडित और महंत बताते हैं।
चाचा जी के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ था। जिस वक़्त वो मछली पकड़ने गए थे वो वक़्त वहां के एक शक्तिशाली परन्तु एकांत पसंद घटवार का वक़्त था। वो मछली और वो सर उस घटवार ने तुम्हे सिर्फ डराने और उस वक़्त पर वहां न आने के लिए दिखाया था। उस तांत्रिक ने बताया की वो घटवार उनपर नाराज़ नहीं है । केवल उन्हें डरवाना चाहता था, और उसी डर की वजह से ही उन्हें बुखार आ रहा था । फिर तांत्रिक ने चाचा जी को अस्पताल से छुट्टी लेने की सलाह दी और कुछ भोग के साथ चाचा जी को उसी समय पर जिस वक़्त वो मछली पकड़ने गए थे वहां अकेले जाने को कहा। वहां जाकर वो भोग अर्पण करें और घटवार से क्षमा प्रार्थना करें। चाचा जी इस बात से और भी ज्यादा डर गए थे, मगर ठीक होने के लिए उन्हें ये करना ही था।

अगले दिन चाचा जी उसी समय पर सारा बताया गया सामान लेकर वहां गए और जल्दी जल्दी क्षमा याचना की और तेज़ी से वापस अपने घर को लौट आये बिना पीछे देखे । उसके बाद उनका बुखार भी उतर गया, और उन्होने दुबारा उस समय पर वहां न जाने का निश्चय किया ।
दोस्तों, घटवार बाबा की इस घटना की पुष्टि के लिए मैंने अपने गुरु जी और अपने कुछ जानकारों से पूछताछ की। उन्होंने ने भी इस बात की पुष्टि की और मुझे सुबूत के तौर पर उदहारण भी दिए। जैसे के वहां मोजूद एक पेड़ जिसकी जड़ आधे से ज्यादा जमीन से बहार है और वो पेड़ गिर हुआ प्रतीत होता है । उसकी डाले गंगा नदी के पानी को छूती हुयी हैं, जो कोई भी उसे पहली बार देखता है उसे इस बात का अचम्भा अवश्य होता है के ये पेड़ तो लगभग गिर हुआ है तो फिर हरा कैसे है इसे तो सूख जाना चाहिए। लेकिन वो हरा सिर्फ वहां मौजूद घटवार बाबा की कृपा से है।
घटवार बाबा की कृपा की और भी घटनाएँ प्रचलित हैं जो की किसी बात की पुष्टि की मोहताज नहीं हैं। घटवार दुष्टों को सज़ा भी देते हैं और मजबूरों की मदद भी करते हैं। वो घटनाएँ मैं आपको आगे भी बताऊंगा।

धन्यवाद ।